Monday, 28 March 2016

sry ...Dr.narang















 तेरी- मेरी  या उसकी ,  क्या औकात है ज़माने में !
मुज़रिम ,गैर-मुज़रिम बस दो ही ज़ात हैं ज़माने में !
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 जनमते और मरते हैं ,जहान में जाने कितने लोग ,
गुज़रती है उम्र यूँ ही , फकत उनको आज़माने में !
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किस-किस को मुआफ़ करें ,तू और मैं कब तक यूँ ही,
जान का भरें खामियाज़ा , इस तरहा रोज़ हर्ज़ाने में !
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मज़हब -सियासत-खुदगर्ज़ी की ही बिछी हैं बिसातें ,
हमाम में सब ....... , क्यूँ कहीं और जाएँ नहाने को !
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कराहने -सिसकने -बिलखने को हाज़िर सौ मिसाले हैं,
मिलता कोई भी मुद्दा नहीं ,  किसी को मुस्कुराने को !
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देखो , अब तुम ही जाकर , वहां उस ख़ुदा से कह देना,
ज़ुर्म और मुज़रिम सारे , इस  जहान से मिटाने को !
---------------- sry again 
________________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति


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