Sunday 24 January 2016

शब्द हैं अर्जुन ...












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शब्द सहज हैं !
इन्सान / उनको ,
तोड़ता - मरोड़ता है !
अर्थ को पकड़कर ,
अनर्थ के व्दार पे,
 जाके छोड़ता है !

बन चुकी पहले,
 जो परिभाषा !
उससे की जाती है ,
मनमाफ़िक आशा !

गढ़ते हैं चक्रव्यह !
कोशिश / उसे ,
बदलने की !
अनर्थ के सहारे,
कुतर्क / लेकर,
छलने की !

अपेक्षा के रण में, 
शब्द के अर्जुन ,
अर्थ में ,
खोजते हैं प्यार !
अनर्थ के कौरव,
परिभाषित क्रष्ण से,
खाते हैं मात ,
अंततः, जाते हैं हार !
--------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति

Thursday 21 January 2016

मुझको याद नहीं...

 जीवन के इस ,
बीहड़ में !
मौन- मौन का ,
पहरा है !
आशाओं के,
मद्धिम दीपक !
अँधियारा बेहद,
गहरा है !

कितनी ही मैं ,
कोशिश कर लूँ,
अब होता कोई,
संवाद नहीं !
ओह ! मुझको जैसे,
कुछ भी याद नहीं .

शायद , वो सारे ,
ख़्वाब सुनहरे ,
मेरे थे !
शायद ,महक भरे,
रैन- सबेरे,
 मेरे थे  !

पर तम के ,
इस घेरे में!
उहापोह के,
फेरे में !
सोच यही ,
बस रहती है -
जीवन के इन,
जंजालों से ,
कोई भी ,
आजाद नहीं !

हाय , मुझको अब
रहता कुछ भी याद नहीं !

घनघोर , निराशा के
काले पल हैं ?
छूटे ,जीवन के 
सम्बल हैं ?

जीवन की बस्ती ,
उजड़ गई ?
कुछ भी क्या,
आबाद नहीं ?

सच, कहती हूं,
मुझको ,कुछ भी याद नहीं !
कुछ भी.............याद नहीं !
______________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति

Sunday 17 January 2016

खालीपन ,अम्बर -सा है


तेरे - मेरे- इसके -उसके,
जाने कितने किस्से हैं !
सब रहते दिल में मेरे,
सबके अपने हिस्से हैं !

पर अब भी मेरे दिल का ,
इक कोना कैसे ख़ाली है ?
आज मिली फुर्सत मुझको,
नज़र उसीपर डाली है !

 भटक रहे हैं जाने कितने,
सपने आकुल बसने को !
और ख्वाहिशों की डोरी,
व्याकुल कोना कसने को !

मुझे लगा ये खालीपन ,
कुछ-कुछ अम्बर जैसा है!
टाकुंगी मैं चाँद यहाँ पर,
' जो'भाता मुझे हमेशा है !

------------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति

Saturday 16 January 2016

मन अनाथ है ....




 घर को , समाज - संसार को ,
सचमुच कुछ ,  सुधार चाहिए !
मन हुआ अनाथ बच्चे जैसा ,
कुछ  रिश्ते  उधार चाहिए !
______________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति


Tuesday 12 January 2016

हकीकत ,भ्रम है ...

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पंछी या फूल !
मन के अनुकूल !
दुःख को भूल !
ये जीवन क्रम है !
हकीकत ,भ्रम है !
------------------------- तंका : डॉ.प्रतिभा स्वाति
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Tuesday 5 January 2016

वही याद आते हैं

बहा काजल, 
कुछ यादें हैं तेरी,
रातें अँधेरी!

उजाले भुलाते हैं ?
नहीं आते हैं !

दिन में स्वप्न कोई !

मनभावन !

कुछ रिश्ते सुहाने ,
मुझे बुलाने,
चले रोज़ आते हैं !

पर प्रीत के दीप,
नैन या सीप !
क्यूँ मोती बहाते हैं
वोही याद आते हैं !

------------------------------- इतनी रात को , इतने दिन बाद ,मन मचल रहा था लिखने के लिए या धिक्कार रहा था, न लिखने के लिए ! सोचा हाइकू लिखकर ख़ुद को फ़ुसला दूँ , फ़िर चोका लिखने का मन हुआ , पर अब मैं तैयार नहीं अक्षर और लाइंस गिनने के लिए :) मैं आई थी ईट जमाने , फ़िर दीवार चुनने बैठ गई , अब ये ख्वाहिश तो बेमानी होगी की मै मीनार बनाकर ही जाऊं :)