Monday 28 March 2016

sry ...Dr.narang















 तेरी- मेरी  या उसकी ,  क्या औकात है ज़माने में !
मुज़रिम ,गैर-मुज़रिम बस दो ही ज़ात हैं ज़माने में !
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 जनमते और मरते हैं ,जहान में जाने कितने लोग ,
गुज़रती है उम्र यूँ ही , फकत उनको आज़माने में !
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किस-किस को मुआफ़ करें ,तू और मैं कब तक यूँ ही,
जान का भरें खामियाज़ा , इस तरहा रोज़ हर्ज़ाने में !
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मज़हब -सियासत-खुदगर्ज़ी की ही बिछी हैं बिसातें ,
हमाम में सब ....... , क्यूँ कहीं और जाएँ नहाने को !
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कराहने -सिसकने -बिलखने को हाज़िर सौ मिसाले हैं,
मिलता कोई भी मुद्दा नहीं ,  किसी को मुस्कुराने को !
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देखो , अब तुम ही जाकर , वहां उस ख़ुदा से कह देना,
ज़ुर्म और मुज़रिम सारे , इस  जहान से मिटाने को !
---------------- sry again 
________________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति


Monday 21 March 2016

कन्हैया ....नहीं सपोला

 मुझे मालूम है , मालूम आपको भी है ..... कन्हैया के बारे में , इसलिए कुछ दिन हम कृष्ण को इस नाम से नहीं पुकारेंगे ! वरना याद उसकी और ज़िक्र उसका , ये ठीक नहीं होगा हमारे हित में !
मन की पीड़ा - दर्द -आक्रोश - घृणा -तडप ..... ज़ाहिर होने चाहिए , न -न मैं सिर्फ़ अपनी बात कर रही हूँ ,जो ज़रा -ज़रा सी बात पर पिघलती हूँ , टूटती और बिखरती हूँ बस एक बूंद की मानिंद वाष्पित होती हूँ और फ़िर पानी बन जाती हूँ ! विषय से भटककर फ़िर उसी मुद्दे पर आ जाती हूँ !
__________ हाँ , तो मैं क्या कह रही थी अभी ? नहीं अभी नहीं उस दिन .....उस दिन , जब उमस -सी थी , कोई बादल यूँ ही मुस्कराया तो  कुछ बूंदें बरस पड़ी थी , और खबरों में बारिश के आसार का ऐलान होने लगा था ,फ़िर मौसम विभाग ने खंडन किया की नहीं बारिश की कोई सम्भावना नहीं . किसान परेशान ना हों ,और नेता भी शांत रहें पक्ष के हों या विपक्ष के .... .सरकार के राहतकोष को अभी कोई खतरा नहीं , अरे ये कोई बारिश का मौसम तो है नहीं .......लो वो बात फ़िर रह गई , उस दिन बच्चों ने बहुत शोर मचाया था -- सांप-सांप -सांप,हाँ मैंने भी देखा था ..... उस सपोले को , छोटा -सा ,बित्ते भर का , विषहीन , जिससे किसी को डरने की ज़ुरूरत नहीं थी .... पर जिंदा छोड़ना भी मुनासिब नहीं लग रहा था . वैसे उसे ख़ुद मर जाना था . वो कोई फणिधर नहीं बनने वाला था ! उमस से उपजा कीड़ा भर! ये तो उस दिन की बात थी ... इसी तरह 'उस' दिन जब अरुण जेटली और अनुपम खैर को सुना तब मालूम हुआ ' कन्हैया ' के बारे में ...और वो सपोला जाने क्यूँ फ़िर आँख के आगे .....फ़िर ये शोर और वो शोर सब आपस में गड्ड- मड्ड होते चले गए .......और मैं ,फ़िर अपनी बात नहीं कह पाई . ह्म्म्म्म अभिव्यक्ति का अधिकार होने से क्या , जब मुझमें वो माद्दा ही नहीं ! मुझे चुप रहना चाहिए .....पर जिनको चुप रहना चाहिए , वो मुसलसल बोले जा रहे हैं / उनका क्या ......उनको रोका जाना चाहिए या खत्म किया जाना चाहिए ? ये मैं सोच रही हूँ ! सोचने का हक़ भी सबको है ! बस सवाल ये है की इस सोच को___ कहीं जंग लग गया है ....कहीं लंगड़ा गई है ... एक ज़हर जो व्याप्त हो रहा है इसमें उसे रोका जाए , मगर कैसे ?

Tuesday 8 March 2016

like की कीमत


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