blog पर आपका स्वागत है.......wlcm
खिलता है यूँ नागफनी...
वो मौसम है .... मेरे दिल का टुकड़ा ही , मुझको छलता है ! जैसे कोई मौसम है , जो रोज़ बदलता है ! इक गुनाह माफ़ करती हूँ , आ...
मेरी 7 कविताएँ u tube पर
- my vdo (19)
Saturday, 30 April 2016
Thursday, 28 April 2016
क़िस्सा खतम ही सही
DR. PRATIBHA SOWATY: क़िस्सा खतम ही सही: (link)
अब हर हौसला दे गया जवाब मुझको ,
रह गई दूर मंज़िल ,दो कदम ही सही !
भेजे नहीं फ़रिश्ते ,आया है बुलावा बस,
ख़ुदा की मर्ज़ी,इतना रहमोकरम ही सही...
अब हर हौसला दे गया जवाब मुझको ,
रह गई दूर मंज़िल ,दो कदम ही सही !
भेजे नहीं फ़रिश्ते ,आया है बुलावा बस,
ख़ुदा की मर्ज़ी,इतना रहमोकरम ही सही...
न्यायालय में रिश्वत
______________________________
जी हाँ , जहाँ से हम न्याय की उम्मीद लगाए बैठे हैं ,वहां खुलेआम होती है रिश्वतखोरी . ये नजारा आगरा फ़ेमिली कोर्ट में देखने को मिला . तमाम वकील , ड्यूटी पर लगे रूम में उपस्थित पुलिस कर्मी , एक जज और तमाम आरोपी और प्रार्थी जिस रूम में खचाखच भरे होते हैं लगभग रोज़ ______ वहां एक मुंशी अगली तारीख बताने के हर फ़ाइल् पर 20 रुपय लेता है . लोग देते हैं ______________ मैं फ़ोटो नहीं ले पाई . अंदर जाते ही मोबाईल बंद रखने का सख्त आदेश है .
Wednesday, 27 April 2016
क़िस्सा खतम ही सही ...
DR. PRATIBHA SOWATY: क़िस्सा खतम ही सही ...: (link )
___________________________________________
दामन् से गिरे , चाँद - तारे सब .
बसी रह गई शबनम ही सही !
_________________________________________
दामन् से गिरे , चाँद - तारे सब .
बसी रह गई शबनम ही सही !
कोई दीवाना , गली में फिरता रहा ,
हो जाए , विसाले सनम ही सही !
_________________________ डॉ . प्रतिभा स्वाति
___________________________________________
दामन् से गिरे , चाँद - तारे सब .
बसी रह गई शबनम ही सही !
_________________________________________
दामन् से गिरे , चाँद - तारे सब .
बसी रह गई शबनम ही सही !
कोई दीवाना , गली में फिरता रहा ,
हो जाए , विसाले सनम ही सही !
_________________________ डॉ . प्रतिभा स्वाति
Tuesday, 26 April 2016
रंगों का सफ़र ...
_______________________________________________________
एक सिक्के के दो पहलू होते हैं ___ विपरीत या पर्याय ? विपरीत ही होते होंगे ! यदि एक से होते तब वे एक ही पहलू में एक साथ रह सकते हैं !
ऐसा कुछ राजनीती के सन्दर्भ में हम नहीं कह सकते , इसका ये मतलब नहीं कि सिक्का खोटा है , हाँ ये सिक्का वहां नहीं चलता , सवाल उठता है फिर वहां क्या चलता है ? नोट ? वोट ? खोट ? आखिर क्या ? सिक्के की मार्फ़त मेरा मकसद पाठक को 2 से तमाम तक लाना था :)
______________ देखिये मैं कोई अर्जुन तो हूँ नहीं , की चिड़िया की आँख पे ही सीधा निशाना साधुं ! उसके लिए कठोर तप और गुरु कृपा की दरकार है . इसलिए हो सकता है मैं निशाना साधूं ,और चिड़िया उड़ जाए ! जंगल के ढेर सारे रंग से दृष्टि वृत्त को सूक्ष्म करते -करते अर्जुन चिड़िया की आँख पर ठहर गए होंगे _ जहां बस दो रंग होंगे , श्वेत और श्याम ---------------- ये प्राथमिक रंग हैं ! सिक्के के एक तरफ़ के रंग , दूसरी तरफ़ इन्द्रधनुष होगा ? तमाम रंग होंगे ? ये जिज्ञासा जब चाह में बदलती है तब हम दूसरी तरफ़ आते हैं ! यदि अपेक्षा पूरी नहीं होती तब फ़िर लौट आते हैं उन्ही 2 रंगों में ! वो दो रंग हो सकते हैं , दो रिश्ते हो सकते हैं . दो लोग हो सकते हैं ! मेरी कहानी में भी दो ही लोग हैं __ माँ और बेटी . जो जीवन के लम्बे समय सिक्के के एक पहलु में दिखाई देते हैं और कहानी खत्म होने तक सिक्का थम जाता है __________ ये क्या ? इधर माँ - उधर बेटी ?
___________________________________ डॉ . प्रतिभा स्वाति
Sunday, 24 April 2016
बेहतर है ...कवि ख़ुद व्याख्या करे
________________________________________________________
स्कूल के दिन , हिंदी की क्लास और किताब की कोई भी कविता , याद कीजिये ! कविता का अपना मनोविज्ञान है ,सबको अच्छी लगती है . जल्दी याद हो जाती है . कोई मधुर स्वर में गा दे गुनगुना दे , तो बरसों मन में बसी रहती है ! लेकिन कविता के मनोविज्ञान और परीक्षा के मनोविज्ञान में इतना फर्क क्यूँ है :)
_____________ परीक्षा में कवि दुश्मन और कविता ज़हर क्यूँ लगती है :)
____________ तब व्याख्या करते दम निकलता था और अब fb पर एक लाइन लिखके देखिये बिना कहे कितने लोग व्याख्या को आतुर नहीं अमादा हैं :) तो क्या अब ,इसका असर परीक्षा के मनोविज्ञान पर सकारात्मक पड़ने वाला है ? शायद हाँ ( सकारात्मक सोच के तहत :) ) शायद ना ,क्यूंकि हम उर्जा और समय को सही दिशा नहीं दे रहे !
______________ पर सीधी -सी बात है हम शुरुआत ख़ुद ही से करें , कम से कम हमें ख़ुदको ये मालूम हो की हम चाहते क्या हैं ? और कर क्या रहे हैं ? यदि हम सही दिशा में हैं तो हमे सफ़लता 100 प्रतिशत प्राप्त होगी ही . ये नियम अंक-गणित में चलता है - 1 और 1 , 2 वाला और रेखागणित में भी . यदि 90 अंश पर दो रेखाएं हैं , तब समकोण त्रिभुज ही बनेगा !
_________ हिंदी की अधिकांश समस्याएँ गणित से इसी तरह सुलझती हैं - ये कहता है मनोविज्ञान ! लो मैंने कितने सारे मोती बिखरा दिए - सार्थक या निरर्थक ? ये कौन तय करेगा ? फ़ैसले की घड़ी - घुटना पेट को झुकेगा :) सही आप हैं सही मैं भी ! बस यूँ ही एक दूसरे को गलत कहके वक्त ज़ाया कर रहे हैं ! हम दोनों अलग हैं !हमारी अपनी मंज़िल है अपने रास्ते हैं .
____________ कुल मिलाकर आदर्श स्थिति वो है जब माला बनी रहे ! और अगर समय - स्थिति - मजबूरी या ज़ुरूरत के आघात से टूट गई तो भी हर मोती को मुस्कुराने का हक़ है !
______________मोह -प्यार-फ़र्ज़ -विवशता के मोती कानून -धर्म-समाज के जिस धागे से बंधे थे . 30 साल तक गले में पड़ी उस माला के लिए ईश्वर का आभार करूं ? या टूट जाने के लिए भाग को कोसूं ? या फ़िर लोभ -लाभ - याचना के धागे लेकर फ़िर गूंथने की कोशिश ?
_________________ मुझे लगता है हर मोती का अपना हक़ है :) माँ-बाप-भाई -बहन -बेटी सब अलग हैं , ख़ुश हैं .
मुझे भी कोई गम नहीं :) ______ तो ?
मैं जिस माला के टूटने से आहत हूँ ,
वो माला है ..............रिश्तों वाली !
_______________________________
एक रिश्ता बचा है अब भी , जो जन्म से म्रत्यु तक बना रहता है - आत्मा और परमात्मा का ! उसके लिए 108 मनके यदि टूटे- बिखरें-गुमें , कोई फ़र्क नहीं पड़ता :) वैसे इस माला को जप करते वक्त जिस सुकून - भक्ति -समर्पण -आस्था और विश्वास के साथ थामा जाता है , कभी टूटी नहीं , न टूट सकती है क्यूंकि इसका ताल्लुक तो श्वास के आरोह - अवरोह से है ! इन मोह -माया के कच्चे धागों ने मुझे कितना कमज़ोर और कायर बना दिया था ! एकदम असमर्थ ....अशक्त .....बेजान ....मृतप्राय !
____________________ समय घाव देता और भरता है !वक्त लगता है ....पर सोच और दिशा तय हो ये ज़ुरूरी है .
गलती मेरी थी , माला को टूटने से पहले मुझे उतार देना था.
________________ एक ही लाइन जगजीत की आवाज़ में - ' मैं तनहा था , मगर टूटा नहीं था "
अब उस एक लाइन पर फ़िर वक्त बर्बाद करने की बारी है , 4 minit पहले जिसका स्निप शॉट लेकर ये post लिखी ! ये मेरे लिए मेरी किताब का पन्ना है और वो जो वहां लिख आई थी - इस छोटी कहानी का बड़ा शीर्षक :)
___________________________________
टूटी जो माला ,
बिखर गए भरम मेरे !
_________________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति
बिखर गए भरम मेरे !
_________________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति
Saturday, 23 April 2016
कहानी ...रोज़ नई चाहिए
कोई भी प्रयोग ,पिछले प्रयोग से प्राप्त निष्कर्ष के बाद ही से उसे आधार बनाके शुरू किया जाता है .
मुझे कहानियां बहुत पसंद हैं , शुरू से . लेकिन जब भी कहानी सुनती उसकी शुरुआत- एक था राजा ,एक थी परी , एक था खरगोश ,एक था ....... से होती थी . फ़िर उस कहानी में तमाम लोग आ जाते और कहानी के साथ मैं भी चलती फ़िर ...फ़िर कहानी ख़त्म हो जाती . मेरे घर में सबको कहानी आती थी नाना -नानी -मौसी -मामा सब माहिर थे कहानी सुनाने में . नहीं सुनानी आती थी तो सिर्फ़ मुझे . मैं सिर्फ़ कहानी सुनना जानती थी ...कहानी सुनना चाहती थी ....इसलिए कहानी सुनते -सुनते सोने के बजाए उठके बैठ जाती थी .कहानी खत्म होते ही पूछती थी --
फ़िर ? फ़िर क्या हुआ ?
फ़िर ? फ़िर कहानी खतम , चुक्कीपानी :)
नहीं मुझे बताओ , मैं ठुनकती
कल ,सुनाएँगे लक्खी बंजारे वाली , यदि अभी सो जाओगी तो , नहीं तो ....बाबा मुझे कल का लालच देके आज पीछा छुड़ा लेते :)
अगला दिन शुरू होते ही कहानी की ज़िद -
चलो अब सुनाओ !
अभी नहीं ,शाम को.
अभी क्यूँ नहीं ?
दिन में नहीं सुनाते हैं :)
क्यूँ ?
मामा रस्ता भूल जाता है !
_____________ ओह ! अब जब तक मामा घर लौटके नहीं आ जाते , मुझे रुकना ही होगा , मैं रूकती थी , रोज़ रूकती थी . वो रास्ता नहीं भूलते थे . लौट आते थे , देर से आते थे तो डांट खाते थे नाना की !
फ़िर धीरे -धीरे सब कम होता गया -ननिहाल जाना कम हो गया , वहां रहना कम हो गया , कहानियाँ भी कम हो गईं !
पर कुछ भी खत्म नहीं हुआ , मुझे रोज़ शाम वो सारी कहानियां एक -एक कर याद आती हैं . बाबा और मामा की याद आती है . मन ही मन फ़िर -फ़िर -फ़िर की रट लगाती हूँ '.फ़िर क्या फुर्रर्र ' मेरे मामा और मौसी इसी तरह मेरे मजे लेते थे . कहानी का लालच देके - चलो अब पानी पिलाओ का काम कराते थे :) नहीं तो शाम को कहानी नहीं सुनाएँगे धमकी भी देते थे. मामा को कहानियाँ ज़रा कम आती थीं इसलिए झिकझिक ज़ियादा होती थी -
एक था बन्दर ..
नहीं ,बन्दर वाली नहीं
क्यूँ ?
उस दिन सुनाई तो थी
फ़िर कौनसी ? खरगोश वाली ?
हाँ खरगोश वाली :)
___________ये वही खरगोश वाली कहानी थी ,जो आप सबको पता है . थोड़े बड़े हुए ,तब वही खरगोश किताबों की कहानियों में भी मिला ....फ़िर एक दिन उछलकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ ... तुम लोग कब तक मुझे यूँ इस तरह अपनी कहानियों में दौड़ाओगे , मेरी उमर देखो , मैं थक गया हूँ ... मेरे नाती पोते भी बड़े हो गए हैं . उस शेर को मरे सौ साल हो गए .और तो और तमाम लोग पक चुके हैं तुम्हारी ये कहानी सुनके चलो कागज़ -पेन उठाओ ,मैं बताता हूँ आगे की कथा - तुम लिखो ....तुम लिखो ....और मैं कहानी लिखने लगी . और 20 बरस की उम्र में , ' नईदुनिया ' ने मेरी कहानी छाप दी और सिलसिला शुरू हो गया ' बच्चों की दुनिया' में प्रतिभा व्दिवेदी छपने लगी . सखी -सहेलियों में धाक जम गई _________1984 में , मैं कहनियाँ सुनने वाली नहीं लिखने वाली बन चुकी थी , मेरी माँ को मुझपर गर्व था .... की उनकी बेटी लिखती है , अख़बार में उसकी कहानी छपती है . उस कहानी का नई दुनिया मनीआर्डर भेजता था , उन रसीदों को मैंने बहुत समय तक सम्हाल के रखा अपने बच्चों को ये अख़बार और रसीदें दिखाउंगी ________ ये प्रमाण बहुत जुरुरी हो गए हैं , अब ज़िन्दगी के लिए !
_______________ डॉ .प्रतिभा स्वाति
मुझे कहानियां बहुत पसंद हैं , शुरू से . लेकिन जब भी कहानी सुनती उसकी शुरुआत- एक था राजा ,एक थी परी , एक था खरगोश ,एक था ....... से होती थी . फ़िर उस कहानी में तमाम लोग आ जाते और कहानी के साथ मैं भी चलती फ़िर ...फ़िर कहानी ख़त्म हो जाती . मेरे घर में सबको कहानी आती थी नाना -नानी -मौसी -मामा सब माहिर थे कहानी सुनाने में . नहीं सुनानी आती थी तो सिर्फ़ मुझे . मैं सिर्फ़ कहानी सुनना जानती थी ...कहानी सुनना चाहती थी ....इसलिए कहानी सुनते -सुनते सोने के बजाए उठके बैठ जाती थी .कहानी खत्म होते ही पूछती थी --
फ़िर ? फ़िर क्या हुआ ?
फ़िर ? फ़िर कहानी खतम , चुक्कीपानी :)
नहीं मुझे बताओ , मैं ठुनकती
कल ,सुनाएँगे लक्खी बंजारे वाली , यदि अभी सो जाओगी तो , नहीं तो ....बाबा मुझे कल का लालच देके आज पीछा छुड़ा लेते :)
अगला दिन शुरू होते ही कहानी की ज़िद -
चलो अब सुनाओ !
अभी नहीं ,शाम को.
अभी क्यूँ नहीं ?
दिन में नहीं सुनाते हैं :)
क्यूँ ?
मामा रस्ता भूल जाता है !
_____________ ओह ! अब जब तक मामा घर लौटके नहीं आ जाते , मुझे रुकना ही होगा , मैं रूकती थी , रोज़ रूकती थी . वो रास्ता नहीं भूलते थे . लौट आते थे , देर से आते थे तो डांट खाते थे नाना की !
फ़िर धीरे -धीरे सब कम होता गया -ननिहाल जाना कम हो गया , वहां रहना कम हो गया , कहानियाँ भी कम हो गईं !
पर कुछ भी खत्म नहीं हुआ , मुझे रोज़ शाम वो सारी कहानियां एक -एक कर याद आती हैं . बाबा और मामा की याद आती है . मन ही मन फ़िर -फ़िर -फ़िर की रट लगाती हूँ '.फ़िर क्या फुर्रर्र ' मेरे मामा और मौसी इसी तरह मेरे मजे लेते थे . कहानी का लालच देके - चलो अब पानी पिलाओ का काम कराते थे :) नहीं तो शाम को कहानी नहीं सुनाएँगे धमकी भी देते थे. मामा को कहानियाँ ज़रा कम आती थीं इसलिए झिकझिक ज़ियादा होती थी -
एक था बन्दर ..
नहीं ,बन्दर वाली नहीं
क्यूँ ?
उस दिन सुनाई तो थी
फ़िर कौनसी ? खरगोश वाली ?
हाँ खरगोश वाली :)
___________ये वही खरगोश वाली कहानी थी ,जो आप सबको पता है . थोड़े बड़े हुए ,तब वही खरगोश किताबों की कहानियों में भी मिला ....फ़िर एक दिन उछलकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ ... तुम लोग कब तक मुझे यूँ इस तरह अपनी कहानियों में दौड़ाओगे , मेरी उमर देखो , मैं थक गया हूँ ... मेरे नाती पोते भी बड़े हो गए हैं . उस शेर को मरे सौ साल हो गए .और तो और तमाम लोग पक चुके हैं तुम्हारी ये कहानी सुनके चलो कागज़ -पेन उठाओ ,मैं बताता हूँ आगे की कथा - तुम लिखो ....तुम लिखो ....और मैं कहानी लिखने लगी . और 20 बरस की उम्र में , ' नईदुनिया ' ने मेरी कहानी छाप दी और सिलसिला शुरू हो गया ' बच्चों की दुनिया' में प्रतिभा व्दिवेदी छपने लगी . सखी -सहेलियों में धाक जम गई _________1984 में , मैं कहनियाँ सुनने वाली नहीं लिखने वाली बन चुकी थी , मेरी माँ को मुझपर गर्व था .... की उनकी बेटी लिखती है , अख़बार में उसकी कहानी छपती है . उस कहानी का नई दुनिया मनीआर्डर भेजता था , उन रसीदों को मैंने बहुत समय तक सम्हाल के रखा अपने बच्चों को ये अख़बार और रसीदें दिखाउंगी ________ ये प्रमाण बहुत जुरुरी हो गए हैं , अब ज़िन्दगी के लिए !
_______________ डॉ .प्रतिभा स्वाति
ख़्वाब ,जिससे मैं जागना नहीं चाहती
1984 में, कितनी मुश्किलें आई थी तब , जब g.d.c. indore में मैंने प्रवेश लिया . फॉर्म में फ़ोटो लगाना ,और इसके लिए स्टूडियो तक जाना :)
__________________फिर जब तक पढाई पूरी नहीं हुई यही फ़ोटो, कॉपी करवा के काम आता रहा . बस पास , लायब्ररी कार्ड , परिचय- पत्र में पहचान के लिए यही फ़ोटो था ! जब भी श्वेत -श्याम इस तस्वीर को देखती हूँ इन आँखों में ढेर ख़्वाब नज़र आते हैं ,एक निरभ्र नील असीम आकाश ! एक तस्वीर जो मुझे पूरी कॉलिज याद दिलाने दम रखती है . अब की सेल्फी अभी ली ,अभी डिलीट .....ऐसा क्यूँ ?
मुझे मालूम है फ़ोटो की अहमियत ,जब मैंने फोटोग्राफी शुरू की , डार्क रूम बनाया , इनलोर्जर लेके आई , वो लाल प्रकाश , फ़ोटो डेवलप करना ,अँधेरे ही में रोल कट करना और फ़िर अख़बार और पत्रिका में छपने पर जो पारिश्रमिक मिला वो उतना नहीं था ..... जितना मैंने सारे टीमटाम पे खर्च कर डाला था . 6000 का केनन का केमेरा और 10000
का इन्लोर्जर आज भी मुझे उस श्रम और संघर्ष की याद दिलाते हैं .
इस तस्वीर को मैंने बहुत जगह काम लिया . कभी अपनी कहानियों तो कभी कविताओं में . एक मासिक या साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी तब (1990)दिल्ली से उसके कवर पे भी ये फ़ोटो छपा था --------- बिटिया की मॉडलिंग और मेरी फ़ोटोग्राफ़ी के बहुत सारे प्रमाण अब भी हैं ___ जो लोरी और कहानी जैसे हैं . शहद जैसे हैं . फूल जैसे हैं . जैसे उनमें कोई जादू है , कोई सम्मोहन . कोई तन्द्रा या निद्रा जैसा कुछ . जैसे कोई ख़्वाब , जिससे मैं जागना नहीं चाहती ....
__________ डॉ. प्रतिभा स्वाति
__________________फिर जब तक पढाई पूरी नहीं हुई यही फ़ोटो, कॉपी करवा के काम आता रहा . बस पास , लायब्ररी कार्ड , परिचय- पत्र में पहचान के लिए यही फ़ोटो था ! जब भी श्वेत -श्याम इस तस्वीर को देखती हूँ इन आँखों में ढेर ख़्वाब नज़र आते हैं ,एक निरभ्र नील असीम आकाश ! एक तस्वीर जो मुझे पूरी कॉलिज याद दिलाने दम रखती है . अब की सेल्फी अभी ली ,अभी डिलीट .....ऐसा क्यूँ ?
मुझे मालूम है फ़ोटो की अहमियत ,जब मैंने फोटोग्राफी शुरू की , डार्क रूम बनाया , इनलोर्जर लेके आई , वो लाल प्रकाश , फ़ोटो डेवलप करना ,अँधेरे ही में रोल कट करना और फ़िर अख़बार और पत्रिका में छपने पर जो पारिश्रमिक मिला वो उतना नहीं था ..... जितना मैंने सारे टीमटाम पे खर्च कर डाला था . 6000 का केनन का केमेरा और 10000
का इन्लोर्जर आज भी मुझे उस श्रम और संघर्ष की याद दिलाते हैं .
इस तस्वीर को मैंने बहुत जगह काम लिया . कभी अपनी कहानियों तो कभी कविताओं में . एक मासिक या साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी तब (1990)दिल्ली से उसके कवर पे भी ये फ़ोटो छपा था --------- बिटिया की मॉडलिंग और मेरी फ़ोटोग्राफ़ी के बहुत सारे प्रमाण अब भी हैं ___ जो लोरी और कहानी जैसे हैं . शहद जैसे हैं . फूल जैसे हैं . जैसे उनमें कोई जादू है , कोई सम्मोहन . कोई तन्द्रा या निद्रा जैसा कुछ . जैसे कोई ख़्वाब , जिससे मैं जागना नहीं चाहती ....
__________ डॉ. प्रतिभा स्वाति
Friday, 22 April 2016
मुस्लिम का मतलब 'वोट' और 'आतंकवाद ' है ?
हो सकता है मेरा लिखा हुआ आपको गलत लगे , पर मैं सही -गलत के फ़ेर में न पड़ते हुए जो देखा और सुना वो लिखूंगी .
जाने मेरा ज़मीर जाग गया है या सोया हुआ journlist उठ के खड़ा हो गया है जब - मैंने आगरा के एक इलाक़े में पाकिस्तानी ध्वज फहराते देखा , खून कुछ खौलने -सा लगा था ! पुलिस को वहां आतंकवाद दीखता है और प्रशासन को वोट !
अब सही -गलत आप जानिए , जो दिख गया , वो लिख दिया .
मैं कट्टर हिन्दू हूँ , इसका ये मतलब कतई नहीं है की इस्लाम से मुझे बैर है और मुसलमानों से नफ़रत . गलत की कोई जात -धर्म -ईमान नहीं होता .हम अपनों के सामने तनके खड़े हो जाते हैं और दूसरा सामने हो तब सौ बार सोचते हैं. हम से मेरा मतलब आम जन से है , यदि आप सहमत या शामिल नहीं तो मुबारक़ हो - ' आप विशेष ' हैं ! और मेरी बात अभी पूरी की पूरी शेष है :)
------------ डॉ. प्रतिभा स्वाति
जाने मेरा ज़मीर जाग गया है या सोया हुआ journlist उठ के खड़ा हो गया है जब - मैंने आगरा के एक इलाक़े में पाकिस्तानी ध्वज फहराते देखा , खून कुछ खौलने -सा लगा था ! पुलिस को वहां आतंकवाद दीखता है और प्रशासन को वोट !
अब सही -गलत आप जानिए , जो दिख गया , वो लिख दिया .
मैं कट्टर हिन्दू हूँ , इसका ये मतलब कतई नहीं है की इस्लाम से मुझे बैर है और मुसलमानों से नफ़रत . गलत की कोई जात -धर्म -ईमान नहीं होता .हम अपनों के सामने तनके खड़े हो जाते हैं और दूसरा सामने हो तब सौ बार सोचते हैं. हम से मेरा मतलब आम जन से है , यदि आप सहमत या शामिल नहीं तो मुबारक़ हो - ' आप विशेष ' हैं ! और मेरी बात अभी पूरी की पूरी शेष है :)
------------ डॉ. प्रतिभा स्वाति
Thursday, 21 April 2016
Sunday, 17 April 2016
मैं हूँ कहां ....कहाँ नहीं हूँ
क्यूँ आज यूँ ही ,
मैं / इधर / आज ,
आ निकली हूँ ?
इस भीड़ में ,
जानते -बूझते ,
तन्हा ही भली हूँ !
अब नहीं करती ,
मैं जोश की बातें !
बदगुमानी में कभी ,
होश की बातें !
कत्ल की उस रात ,
पूनम थी या मावस ?
गुजरते हैं आज तक
मेरे दिन यूँ ही बस !
नहीं खोलती मगर,
कोई / कभी
यादों का झरोखा !
कुछ यकीं के किस्से,
छलक ना पड़े कोई,
भूला हुआ धोका !
ठहरी हुई साँसे ,
उलझी तो आख़िर ,
कहाँ आकर ?
खत्म हैं मोहलतें ,
मौत हंसती है ,
ठठाकर !
आस अब भी है,
इक बची हुई !
ख़्वाब मैंने बुना था ,
थी मेरी रची हुई !
मेरी कब्र पे आकर ,
फ़ातिहा पढ़ने वालो !
मैं वहाँ नहीं हूँ !
मैं रूह हूँ मेरी ही,
आज हुआ मालूम
हूँ कहां ,कहां नहीं हूँ !
------------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति
Thursday, 7 April 2016
Saturday, 2 April 2016
Subscribe to:
Posts (Atom)