क्यूँ आज यूँ ही ,
मैं / इधर / आज ,
आ निकली हूँ ?
इस भीड़ में ,
जानते -बूझते ,
तन्हा ही भली हूँ !
अब नहीं करती ,
मैं जोश की बातें !
बदगुमानी में कभी ,
होश की बातें !
कत्ल की उस रात ,
पूनम थी या मावस ?
गुजरते हैं आज तक
मेरे दिन यूँ ही बस !
नहीं खोलती मगर,
कोई / कभी
यादों का झरोखा !
कुछ यकीं के किस्से,
छलक ना पड़े कोई,
भूला हुआ धोका !
ठहरी हुई साँसे ,
उलझी तो आख़िर ,
कहाँ आकर ?
खत्म हैं मोहलतें ,
मौत हंसती है ,
ठठाकर !
आस अब भी है,
इक बची हुई !
ख़्वाब मैंने बुना था ,
थी मेरी रची हुई !
मेरी कब्र पे आकर ,
फ़ातिहा पढ़ने वालो !
मैं वहाँ नहीं हूँ !
मैं रूह हूँ मेरी ही,
आज हुआ मालूम
हूँ कहां ,कहां नहीं हूँ !
------------------------------- डॉ. प्रतिभा स्वाति
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " गुज़रा ज़माना बचपन का - ब्लॉग-बुलेटिन के बहाने " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार
Deleteक्या बात है!
ReplyDeleteक्या बात है!
ReplyDeletethnx
DeleteAnteratma Rooh ki pukar, uske jaane baad uski tareef kerne walo ko jhanjhorti hui, ki meri mehak poore brahmand me hai, Zindagi kanto se bhari hui hai, har zindagi ko koi sahara chahiye, Sab mushkile cut jaye gi, koi hum safar hamara chahiye .. Kavye samrat Dr. Pratibha Sowaty ji ki chit mohuk rachna ki khubsoorat parsansha !
ReplyDeleteaabhar :)
DeleteAb tak aapki jitni bhi kavita padi unme no. 1
ReplyDeletethnx sir :)
DeleteAb tak aapki jitni bhi kavita padi unme no. 1
ReplyDeleteवाह, हम वहाँ हैं जहाँ से हमे हमारी खबर नही आती।
ReplyDeleteआभार :)
Deleteवाह बहुत अच्छी पंक्तियाँ ... खुद को ढूंढती सी रचना ...
ReplyDeleteशुक्रिया सर !
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