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बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित इस गीत का प्रकाशन सन् १८८२ में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ था। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के सन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी।
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सन् १८७०-८० के दशक में ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेजों के इस आदेश से बंकिमचन्द्र चटर्जी को, जो उन दिनों एक सरकारी अधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने सम्भवत: १८७६ में इसके विकल्प के तौर परसंस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से एक नये गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया - ‘वन्दे मातरम्’। शुरुआत में इसके केवल दो ही पद रचे गये थे जो संस्कृत में थे। इन दोनों पदों में केवल मातृभूमि की वन्दना थी। उन्होंने १८८२ में जब आनन्द मठ नामक बाँग्ला उपन्यास लिखा तब मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत इस गीत को भी उसमें शामिल कर लिया। यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण व प्राकृतिक प्रकोप (अकाल) में मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए सन्यासी विद्रोह पर आधारित था। इस तथ्यात्मक इतिहास का उल्लेख बंकिम बाबू ने 'आनन्द मठ' के तीसरे संस्करण में स्वयं ही कर दिया था। और मजे की बात यह है कि सारे तथ्य भी उन्होंने अंग्रेजी विद्वानों-ग्लेग व हण्टर[7] की पुस्तकों से दिये थे। उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम का एक सन्यासी गाता है। गीत का मुखड़ा विशुद्ध संस्कृत में इस प्रकार है: "वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम् , शस्य श्यामलाम् मातरम् ।" मुखड़े के बाद वाला पद भी संस्कृत में ही है: "शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम् , फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् , सुखदां वरदां मातरम् ।" किन्तु उपन्यास में इस गीत के आगे जो पद लिखे गये थे वे उपन्यास की मूल भाषा अर्थात् बाँग्ला में ही थे। बाद वाले इन सभी पदों में मातृभूमि की दुर्गा के रूप में स्तुति की गई है। यह गीत रविवार, कार्तिक सुदी नवमी, शके १७९७ (७ नवम्बर १८७५) को पूरा हुआ।
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इसे कॉपी -पेस्ट करने का मक़सद / देश की नई
नस्ल को उस अतीत से वाकिफ करवाना है , जिसकी
बदौलत आज हमारा सर , गर्वोन्नत है !
---------------------------------- जयहिंद !
----------------------- प्रस्तुति : डॉ. प्रतिभा स्वाति
thnx sr
ReplyDeleteबस इतने से ही काम नही चलता ,,,,,,कांग्रेस की करतूत और गुरुदेव के कृत्य भी मायने रखते है जो ……… आने वाली नश्लों को मालूम होना चाहिए ……… इतनी सिद्दत से लिखी गयी "वन्दे मातरम " जो हर एक सभा बहुत प्यार और सम्मान से हर नागरिक गाता था ,,, जो हरेक के दिलो को अपनी वर्तमान स्थिति से उबरने की हिम्मत देता था ,,, … उसे रबीन्द्रनाथ जी द्वारा किसी ब्रिटिशर के स्वागत में लिखे गए इंग्लिश poem के अनुवाद "जन गण मन अधिनायक जय हे " से प्रतिस्थापित करना कितना उचित है? ,,, जब कांग्रेस की सभा समाप्त होती और नियमतः 'वन्दे मातरम' गाने के बजाय नेहरू ग्रुप 'जन गण मन ' का आलाप करने लगता ,,,, सभा की बैठक से नही तो समापन से ही बॉयकॉट करने का इंटेंशन कितना सही था ,,,,
ReplyDeleteकुल मिलकर बात इतने से ही नही बनती …………… that right thing was replaced by the very modified bad thing in front of illiterate Indian only by the bad intention of Nehruvian Group.
ur rt /sr
Deleteअच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteआभार डॉ /
Deletewlcm / :)
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति , आप की ये रचना चर्चामंच के लिए चुनी गई है , सोमवार दिनांक - १३ . ७ . २०१४ को आपकी रचना का लिंक चर्चामंच पर होगा , कृपया पधारें धन्यवाद !
ReplyDeletethnx / :)
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआभार / :)
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